रविवार, 29 जनवरी 2017

गीत को मरने न देंगे-ओमप्रकाश राजस्थानी

हम अछांदस आक्रमण से, छंद को डरने न देंगे
युग-बयार बहे किसी विधि, गीत को मरने न देंगे

गीत भू की गति, पवन की लय, अजस्त्र प्रवाहमय है
पक्षियों का गान, लहर विधान, निर्झर का निलय है
गीत मुरली की मधुर ध्वनि, मंद्र सप्तक है प्रकृति का
नवरसों की आत्मा है, गीत कविता का हृदय है
बेसुरे आलाप को, सुर का हरण करने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

शब्द संयोजन सृजन में, गीत सर्वोपरि अचर है
जागरण का शंख, संस्कृति-पर्व का पहला प्रहर है
गीत का संगीत से संबंध शाश्वत है, सहज है
वेदना की भीड़ में, संवेदना का स्वर मुखर है
स्नेह के इस राग को, वैराग्य हम वरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

गीत हैं सौंदर्य, शिव साकार, सत् का आचरण है
गीत वेदों, संहिताओं के स्वरों का अवतरण है
नाद है यह ब्रह्रम का, संवाद है माँ भारती का
गीत वाहक कल्पना का, भावनाओं का वरण है
गीत-तरु का विकच कोई पुष्प हम झरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

शनिवार, 28 जनवरी 2017

अनमोल प्यार बिन मोल बिके इस दुनिया के बाज़ार में

 अनमोल प्यार बिन मोल बिके
इस दुनिया के बाज़ार में 
इन्सान और ईमान बिके 
इस दुनिया के बाज़ार में 
 अनमोल प्यार बिन मोल बिके

खिलते ही इस फुलवारी में
प्यार की कलियाँ जल जाती हैं 
दिल की दिल में रह जाती है
चाँदनी रातें ढल जाती हैं
कितने ही सन्सार उजड़ जाते हैं इस सन्सार में
इस दुनिया के बाज़ार में
ओ अनमोल प्यार बिन मोल बिके

दिन के उजाले में भी कोई
हमको लूट के चल देता है 
प्यार भरा अरमान भरा ये
दिल पैरों से कुचल देता है 
चमन हमारी उम्मीदों के सूखे भरी बहार में 
इस दुनिया के बाज़ार में
अनमोल प्यार बिन मोल बिके

धन दौलत के दूध पे हमने
पाप के साँप को पलते देखा
उलटी रीत कि इस दुनिया में
सुबह को सूरज ढलते देखा 
बोल यही इन्साफ़ है क्या मालिक तेरे दरबार में 
इस दुनिया के बाज़ार में
 अनमोल प्यार बिन मोल बिके
इस दुनिया के बाज़ार में 
 अनमोल प्यार बिन मोल बिके

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

अगणित तलवारों पर अकेला ही भारी हूँ


अगणित तलवारों पर अकेला ही भारी हूँ
भाषा का योद्धा मैं क़लम-शस्त्रधारी हूँ

ये मत समझे कोई शब्दों का छल हूँ मैं
जीवन के कड़वे अध्यायों का हल हूँ मैं
निर्बल-असहायों का गहराता बल हूँ मैं
मानस को निर्मल करने वाला जल हूँ मैं
सूर और तुलसी हैं मेरे संबंधीजन
वाल्मीकि-वंशज, कबिरा का अवतारी हूँ
अगणित तलवारों पर...

दिग्भ्रमित समाजों के सारे भ्रम तोड़ूँगा
एक भी विसंगति को जीवित कब छोड़ूँगा
न्यायों के छिन्न-भिन्न सूत्रों को जोड़ूँगा
शोषण का बूँद-बूँद रक्त मैं निचोड़ूँगा
शुभ कृत्यों पर हावी होते दुष्कृत्यों को
शब्दों से रोकूँगा, करता तैयारी हूँ
अगणित तलवारों पर...

ज़हरीले आकर्षण नयनों में पलते हैं
देखूँगा ये कैसे मानव को छलते हैं
सूर्य सभ्यताओं के उगते और ढलते हैं
मेरे संकेतों पर युग रूकते-चलते हैं
मानवता की रक्षा-हित निर्मित दुर्गों का
मैं भी इस छोटा-सा कर्मठ प्रतिहारी हूँ
अगणित तलवारों पर...

लक्ष्य तो कठिन है पर जैसे हो पाना है
भटकी इस जगती को रस्ते पर लाना है
रावणों के मानस को राममय बनाना है
एक नई रामायण फिर मुझको गाना है
माँ सरस्वती मुझ पर भी कृपा किए रहना
आपकी चरण-रज का मैं भी अधिकारी हूँ
अगणित तलवारों पर...

दुख के अँधियारों में मैंने काटा जीवन
लगता है मुट्ठी, दो मुट्ठी आटा जीवन
देने का तत्पर है प्रतिपल घाटा जीवन
जैसा है सबकी सेवा हित बाँटा जीवन
संघर्षों की दुर्गम घाटियाँ नियति में हैं
हार नहीं मानूँगा, धैर्य का पुजारी हूँ
अगणित तलवारों पर...

यादें तुम्हारी

यादें तुम्हारी
मीठी हैं बहुत
फिर क्यों टपकता है
आँखो से खारा पानी
जब-जब भी
सुनता-देखता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की
उन्मुक्त कहानी!

दिल में
यादें थीं तुम्हारी
जिन पर
रख छोड़ा था मैंने
मौन का पत्थर
इस लिए था
दिल बहुत भारी।

आँखों में थीं
मनमोहक छवियाँ
कृतियाँ-आकृतियाँ
लाजवाब तुम्हारी
जिनके पलट रखे थे
सभी पृष्ठ मैंने
अब भी चाहते हैं
वे अपनी मनमानी
इसी लिए टपकता है
रात-रात भर
लाल आँखो से
श्वेत-खारा पानी।

हर रात
ओस बूँद से
क्यों टपकते हैं
आँसू आँख से
घड़घड़ाता है
उमड़-घुमड़ दिल
जम कर कभी
क्यों नहीं होती बारिश!

सपनों की उधेड़बुन

सपनों की उधेड़बुन

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही ख़यालों में
मान कर अपने !


सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आँख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतज़ार
सपनों वाली रात का
इसलिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया ज़ोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !


अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आँख
और
सपनों की उधेड़बुन से !